हिरासत में हिंसा और भारत में पुलिस सुधार: एक कानूनी और सामाजिक विश्लेषण
Abstract
भारत में हिरासत में हिंसा एक प्रमुख और गंभीर मानवाधिकार उल्लंघन है, जो देश की लोकतांत्रिक और संवैधानिक बुनियाद को चुनौती देता है। यह शोध पत्र इस जटिल समस्या का एक बहु-आयामी विश्लेषण प्रस्तुत करता है, जिसमें इसके कानूनी, सामाजिक, संस्थागत और ऐतिहासिक आयामों की गहन पड़ताल की गई है। साहित्य विश्लेषण और गुणात्मक डेटा के आधार पर, यह शोध पत्र भारतीय संविधान, भारतीय न्याय संहिता (BNS) और भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता (BNSS) जैसे नए आपराधिक कानूनों के तहत उपलब्ध सुरक्षा उपायों की पड़ताल करता है। यह डी.के. बसु बनाम पश्चिम बंगाल राज्य और प्रकाश सिंह बनाम भारत संघ जैसे ऐतिहासिक न्यायिक निर्णयों के प्रभाव का भी मूल्यांकन करता है, जिन्होंने पुलिस की जवाबदेही और सुधारों के लिए एक रूपरेखा तैयार की। विश्लेषण से यह उजागर होता है कि मजबूत कानूनी और न्यायिक प्रावधानों के बावजूद, हिरासत में हिंसा की समस्या बनी हुई है। इसके मूल में पुलिस अधिनियम, 1861 की औपनिवेशिक विरासत, पुलिस बल के भीतर की संस्थागत संस्कृति, अपर्याप्त प्रशिक्षण, राजनीतिक हस्तक्षेप और जवाबदेही तंत्र की विफलता जैसे गहरे कारण निहित हैं। यह शोध पत्र तर्क देता है कि हिरासत में हिंसा केवल कुछ पुलिसकर्मियों का विचलन नहीं, बल्कि एक प्रणालीगत मुद्दा है। सामाजिक दृष्टिकोण से, यह हाशिए पर मौजूद समुदायों को असमान रूप से प्रभावित करता है, जिससे न्याय प्रणाली में जनता का विश्वास और भी कम हो जाता है। अंत में, यह शोध पत्र संयुक्त राष्ट्र यातना-विरोधी अभिसमय (UNCAT) के अनुसमर्थन, एक स्वतंत्र और सशक्त पुलिस शिकायत प्राधिकरण की स्थापना, और प्रशिक्षण मॉड्यूल में सुधार सहित व्यापक कानूनी और संस्थागत सुधारों की तत्काल आवश्यकता पर बल देता है ताकि भारत में एक मानवीय, जवाबदेह और न्यायपूर्ण पुलिसिंग व्यवस्था स्थापित की जा सके।